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माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा, उत्तराखंड | बग्वाल मेला देवीधुरा | Maa Barahi Devi Mandir Devidhura, uttarakhand

माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा, उत्तराखंड | बग्वाल मेला देवीधुरा | Maa Barahi Devi Mandir Devidhura, uttarakhand


नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड में स्थित माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा के बारे में बताएंगे।



एक ऐसा माँ देवी का धाम जंहा मान्यता है, कि खुली आंखों से देखने वाला भक्त अंधा हो जाता है। इसी कारण देवी की मूर्ति को ताम्रपेटिका में रखा जाता है। हम बात कर रहे हैं, माँ बाराही देवी मंदिर की जो उत्तराखंड राज्य के नैनीताल जिले से लगे पाटी विकासखंड के देवीधुरा में स्थित मां बाराही धाम एक प्राचीन धार्मिक स्थल हैं। और माँ बाराही मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता हैं। समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर की उँचाई पर स्थित है, देवीधुरा में बसने वाली माँ बाराही का मंदिर 52 शक्ति पीठों में से एक माना जाता हैं।



आषाढ़ी सावन शुक्ल पक्ष में यहां गहड़वाल, चम्याल, वालिक और लमगड़िया खामों  के बीच बग्वाल (पत्थरमार युद्ध) होता है। देवीधूरा में वाराही देवी मंदिर शक्ति के उपासकों और श्रद्धालुओं के लिये वह पावन और पवित्र स्थान है। जहां पहुंचते ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। यह क्षेत्र देवी का “उग्र पीठ” माना जाता है। इसे पूर्णागिरी की तरह ही माना जाता है। यह स्थान प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थल से साथ साथ कई पौराणिक कथायें भी जुड़ी हैं। जो कि निम्न प्रकार हैं-

माँ बाराही देवी की कथा-

वैष्णवी माँ वाराही का मन्दिर भारत में गिने चुने मन्दिरों में से है। पौराणिक कथाओं के आधार पर हिरणाक्ष व अधर्मराज पॄथ्वी को पाताल लोक ले जाते हैं। तो पृथ्वी की करूण पुकार सुनकर भगवान विष्णु वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाते है। तथा उसे वामन में धारण करते है। तब से पृथ्वी स्वरूप वैष्णवी वाराही कहलायी गई। यह वैष्णवी आदि काल से गुफा गहवर में भक्त जनों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही है।

मुख्य आकर्षण-

श्रावण शुक्ल एकादशी से कृष्ण जन्माटष्मी तक अनेक आयामों को छुने वाले इस मेले का प्रमुख आकर्षण ’’बग्वाल’’ है। जो श्रावणी पूर्णिमा को खेली जाती है। ’’बग्वाल’’ एक तरह का पाषाण युद्ध है जिसको देखने देश के कोने-कोने से दर्शनार्थी इस पाषाण युद्ध में चार खानों के दो दल एक दूसरे के ऊपर पत्थर बरसाते है बग्वाल खेलने वाले अपने साथ बांस के बने फर्रे पत्थरों को रोकने के लिए रखते हैं। मान्यता है कि बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती है। सांस्कृतिक प्रेमियों के परम्परागत लोक संस्कृति के दर्शन भी इस मेले के दौरान होते हैं। यह मेला प्रति वर्ष रक्षा बंधन के अवसर पर 15 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है जिसमें अपार जन समूह दर्शनार्थ पहुंचता है।

माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा का इतिहास-


चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और ललत जिह्वा महाकाली की स्थापना की गई थी। तब “लाल जीभ वाली महाकाली को महर” और फर्त्यालो द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारो ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया । यह भी बताया जाता है कि पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी।



ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। जिनमें से एक को राम शिला  कहा जाता है, इस स्थान पर ‘पचीसी’ नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं। जनश्रुति के अनुसार यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था। उसी के समीप दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।

माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा की एक और पौराणिक कथा-

पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था। जहां किसी समय में काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। इस प्रथा को कालान्तर में स्थानीय लोगों द्वारा बन्द कर दिया गया। इससे पहले देवीधूरा के आस-पास निवास करने वाले लोगों वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहडवाल खामों (वर्ग) के थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी।

लेकिन वर्तमान समय में माँ बाराही देवी की यह मान्यता भी है, कि चम्याल खाम की एक बुजुर्ग की तपस्या से प्रसन्न होने के बाद नर की बलि बंद कर दी गयी और “बग्वाल” की परम्परा शुरू हुई। इस बग्वाल में चार खाम उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक, पूर्व की ओर से गहडवाल के रणबांकुरे बिना जान की परवाह किये एक इंसान के रक्त निकलने तक युद्ध लड़ते हैं। लेकिन भले ही तीन साल से बग्वाल फल-फूलो से खेली जा रही हो। उसके बावजूद भी योद्धा घायल होते हैं और उनके शरीर रक्त निकलता दिखता है।


माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा की मान्यतायें-

मुख्य मंदिर गगोरि नामक कंदराओं के बारे में कहते हैं कि इन चट्टानों के बीच से ही देवी ने अपने ग्रह में प्रवेश किया था। यह दोनों विशाल चट्टानों बहुत सक्रिय और सटी हुई है एक पत्थर से निरंतर तेल सदृश द्रव्य निकलता रहता था। दोनों सकरी चट्टानों के बीच से ही प्रवेशद्वार बना है। चट्टानों के मध्य के खाली जगह पर ही “देवी पीठ” है। लोक मान्यता है कि पहले यहां बाराही देवी साक्षात विराजमान थे। परंतु बाद में उन्होंने अपने स्थान पर केवल अपना विग्रह छोड़ दिया।



माँ बाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां बाराही देवी की मूर्ति है। मगर पेटिका में रखी इस देवी मूर्ति के दर्शन अभी तक किसी ने नहीं किए हैं। माँ बाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है, क्योंकि मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है। इसी कारण देवी की मूर्ति ताम्रपेटिका में रखी जाती है।


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