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छुरमल देवता की कहानी

छुरमल देवता की कहानी


नमस्कार दोस्तों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड के एक शक्तिशाली देवता छुरमल देवता की कहानी के बारे में बताएंगे।



छुरमल देवता के अधिकाँश पूजास्थल, उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के सीरा और अस्कोट क्षेत्र के गाँवों में पाये जाते हैं। इनको बड़ा प्रभावशाली देवता माना जाता है। छुरमल देवता का प्रसिद्ध मन्दिर अस्कोट के गर्खा गाँव के ऊपर धनलेक पर्वत के शिखर पर है जहाँ पर बहुत बड़ा मेला लगता है। पूर्वजों की गाथा के अनुसार, यह धूमाकोट के कालसिन का पुत्र था।

छुरमल देवता की गाथा-

छुरमल देवता के पिता कालसिन का विवाह रिखीमन की पुत्री ह्यूंला के साथ हुआ था जो उस समय एक बालिका ही थी। कालसिन उसे घर पर छोड़कर देवताओं की सभा में चला गया। कुछ वर्षों बाद जब वह लौटकर आया तो ह्यूंला पूर्ण यौवन प्राप्त कर चुकी थी। फिर भी उसने अपनी पत्नी पर ध्यान नहीं दिया। इस पर ह्यूंला ने उस पर अपने को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया। जिससे नाराज होकर कालसिन उसे छोड़कर वापस देवसभा में चला गया।

छुरमल देवता की माँ ह्यूंला जब रजस्वला हुई तो उसकी सास ने उसके रजःस्नान के लिये ऐसा स्नानागार बनाया जो चारों तरफ से पूरी तरह बंद था। परन्तु उसमें केवल एक सूक्ष्म छिद्र रह गया था। जिससे एक बार के रजःस्नान के समय सूर्य की एक किरण उस पर पड़ गई जिससे वह गर्भवती हो गई। ह्यूंला के गर्भवती होने की सूचना का पत्र, अपने तोते के द्वारा, कालसिन की माता ने देवसभा में बैठे अपने पुत्र को भेजा जिसे पढ़कर वह तुरन्त अपने घर की ओर चल पड़ा। 

घर आकर उसको वास्तविकता का पता लग गया और वह पुनः देवपुरी लौट गया। इधर कालसिन की माता ने ह्यूंला को घर से निकाल दिया। प्रसवपीड़ा से त्रस्त ह्यूंला ओखलसारी ( जिस झोपड़ी में ओखल होता है। ) में जाकर बैठ गई। वहीं पर आधीरात के समय उसने एक पुत्र को जन्म दिया जन्म देते ही उस पुत्र ने अपनी माता को व्याकुल न होने को कहा और अपने पिता के बारे में पूछा। माता ने उसे कालसिन के बारे में बताया कि वह इन्द्रपुरी में देवताओं की सभा का दीवान है। 

वह शिशु अपनी नाभिनाल को कमर में लपेट कर शीघ्र इन्द्रपुरी पहुँच गया। उसके वहाँ पहुँचते ही इन्द्रपुरी डोलने लगी। जब उसने अपने पिता के बारे में पूछा तो कालसिन ने उसे अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया। इस पर वहां पर काफी देर तक प्रश्नोत्तर चलता रहा बालक ने अपने जन्म से सम्बद्ध सारी स्थिति को स्पष्ट कर दिया। पर वह माना नहीं इसके बाद उसने उसके समक्ष यह शर्त रखी कि यदि वह गागर (गर्गाचल) के जंगल से एक सिंह को पकड़कर उसके सामने ले आयेगा तो वह उसे अपना पुत्र स्वीकार कर लेगा इस पर बालक छुरमल गागर के जंगल में जाकर एक शेर को पकड़कर ले आया। 

इसके बाद भी वह कई कठिनतम शर्तें रखता गया और छुरमल उन्हें पूरा करता गया। अन्त में उसने यह शर्त रखी कि मैं तुम्हें सात समुन्दर पार लोहे के कड़ाओं में बन्द करूंगा और इधर सात समुन्दर पार से तुम्हारी मां ह्यूंला अपनी छाती से दूध की धार मारेगी। यदि वह तुम्हारे मुंह में ही जायेगी तो मैं तुम्हें तथा तुम्हारी मां दोनों को स्वीकार कर लूंगा इस परीक्षण में भी वह सफल हो गया। 

फिर कालसिण ने उसे पुत्र के रूप में स्वीकार करते हुए उसकी पीठ थपथपायी और कहा ‘यद्यपि तू मेरा पुत्र है पर हम दोनों आमने-सामने होने पर भी कभी परस्पर मिलेंगे नहीं यही कारण है कि पिता - पुत्र होते हुये भी दोनों को एक ही मन्दिर में स्थापित नहीं किया जाता हैं। और एक ही स्थान पर पृथक-पृथक मंदिर में स्थापित किया जाता है। इसमें मानव कल्याणार्थ कालसिण की तथा पशु सम्पदा के कल्याणार्थ छुरमल की पूजा की जाती है। छुरमल (सूर्यपुत्र) का मूल नाम सम्भवतः सूर्यमल रहा होगा जो कि उच्चारणात्मक सौकर्य के कारण कालान्तर में छुरमल के रूप में विकसित हो गया होगा।

छुरमल देवता के मंदिर कत्यूरघाटी के तैलीहाट में हैं। और थान गांव (मल्ला कत्यूर) में है, और धाड़चौड़ (डीडीहाट) की पहाड़ी पर, अस्कोट में देवचूला क्षेत्र में स्थित हैं। धनलेख में भी मंदिर है, जहां इन्हें धनलेख देवता के नाम से भी जाना जाता है। तथा जोहार के डोरगांव आदि स्थानों पर मंदिर स्थापित हैं जोहार में ‘छुरमल पुजाई’ के नाम से भादपद मास के शुल्क पक्ष में एक उत्सव (मेले) का भी आयोजन किया जाता है। वर्षा ऋतु के अतिरिक्त छुरमल देवता की पूजा शुक्ल पक्ष में कभी भी की जा सकती है। कहीं-कहीं दोनों कालसिन और छुरमल देवता एक साथ ही आमने-सामने भी स्थापित किये गये हैं, किन्तु एक ही देवालय में कहीं भी नहीं स्थापित किये जाते हैं।


जय छुरमल देवता।
जय कालसिन देवता।

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