उत्तराखंड रंगमंच के इतिहास की जानकारी
उत्तराखंड रंगमंच के इतिहास की जानकारी
नमस्कार दोस्तों आज हम आपको जय उत्तराखंडी की इस पोस्ट में उत्तराखंड रंगमंच के इतिहास की जानकारी के बारे बतायेंगे।
उत्तराखंड रंगमंच के इतिहास की जानकारी कुछ इस प्रकार है, रंगमंच यात्रा पर उत्तराखंड की रंगमंच यात्रा बहुत ही रोचक हैं। इतनी रोचक और संघर्ष भरी यह यात्रा। कई पड़ावों से गुजरती हुई। कई खट्टे - मीठे अनुभव को अपनी परंपरागत नाट्य शैलियों को जीवित रखने की जद्दोजहद। संसाधनों के अभाव में किसी तरह नाटक विधा को बचाये रखने का संकट। आज से कुछ साल पहले 1917 में टिहरी में भवानीदत्त उनियाल ने जब पहली नाट्य संस्था शैमियर ड्रामेटिक क्लब ' की स्थापना की थी तो उन्हें भी यह आभास नहीं होगा कि यह यात्रा कितने झंझावतों से गुजरेगी। खैर , बहुत उपलब्धियों भरी रही है यह यात्रा। इसे जानने - समझने की कोशिश की है।
' अभिव्यक्ति कार्यशाला ने ' उत्तराखंड रंगमंच शताब्दी नाट्योत्सव ' के समापन पर हम देखेंगे उत्तराखंड रंगमंच के विभिन्न पहलुओं को समझेंगे उत्तराखंड में रंगमंच के इतिहास को देखेंगे उत्तराखंड और दिल्ली की नाट्य संस्थाओं द्वारा मंचति छह नाटक। हमारी परंपरागत नाट्य शैलियों पर आधारित नाटकों के देखने का एक अवसर मिलेगी अपनी विधाओं को समझने की दृष्टि कुछ बातें रंगमंच की दिक्कतों की सेमिनार के माध्यम से । उन पुराने लोगों का स्मरण जिन्होंने हमें नाटकों की समझ दी।
उत्तराखंड शताब्दी नाट्योत्सव ' में श्रीनगर और द्वाराहाट में मंचित नाटकों पर एक नजर -
रंग्यू बाखरू
उत्तराखंड श्रीनगर गढ़वाल में पहले दिन का दूसरा नाटक ' रंगू बखरू ' ' अक्षत ' नाट्य सस्था गोपेश्वर ने प्रस्तुत किया । इसके लेखक जगत रावत और निर्देशक विजय वशिष्ठ थे । ' रंग्यू बाखरू ' सामाजिक कुरीतियों और बदलते सामाजिक मूल्यों पर करारा प्रहार करता सटायर था । इस नाटक ने शुरुआत से लेकर अंत तक दर्शकों को अपनी जगह से हिलने नहीं दिया । सवा घंटे के इस नाटक ने हर बार लोगों को हंसाया । समाज के हर क्षेत्र में आ रही मूल्यों की गिरावट को जिस तरह से इस नाटक ने रेखांकित किया वह अद्भुत था ।
आज जब लोग संचार के युग में जी रहे हैं तब गांवों में मसाण - भूत जैसे अंधविश्वास लोगों की प्रगति में बाधा बन रहे हैं । इस नाटक में कथानक के अलावा सशक्त संवाद , सुन्दर गढ़वाली भाषा , बिंब और शिल्प काफी महत्वपूर्ण बन गये थे । हर पात्र ने अभिनय से नाटक को जीवंत बनाये रखा । लछमा श्रीनगर में अंतिम दिन का दूसरा नाटक ' लछमा ' था । इस नाटक को प्रस्तुत किया ' संभव ' नाट्य संस्था देहरादून ने । इस कहानी की लेखिका महादेवी वर्मा थी । नाटक का निर्देशन किया था अभिषेक मैंदोला ने । असल में ' लछमा ' महादेवी वर्मा के रामगढ़ ( नैनीताल ) के प्रवास का एक संस्मरण है , जिसे बहुत खूबसूरती से नाटक में पिरोया गया है।
' लछमा ' उत्तराखंड की उस आम महिला की कहानी है जिसके पास दुखों , संघर्ष और उपेक्षा की गठरी है । इसके बावजूद वह हमेशा निश्छल , भोली , उन्मुक्त रहती है । उसके दुखों का कोई छोर नहीं है । वह छोर कभी पकड़ में नहीं आता । वह हर बार बढ़ता ही जाता है । इस कहानी में पहाड़ से दुखों को झेलती लछमा ' किस तरह मानवीय संवेदनाओं का संसार बनाती है अद्भुत है । इस संसार मे रिश्ते - नाते , समाज , यहां का जनजीवन सब साफ दिखाई देता है । सबसे बड़ी बात यह है कि ' लछमा ' को इसके बावजूद किसी से कोई शिकायत नहीं है । अभिनय की दृष्टि से इस नाटक के सभी पात्रों ने प्रभावित किया । एक छोटे से फ्रेम में भी यह कहानी बहुत व्यापक और संवेदनाओं से भरी थी ।
दो दुखों का एक सुख द्वाराहाट में पहले दिन का दूसरा नाटक हल्द्वानी के अस्तित्व ' नाट्य संस्था ने ' दो दुखों का एक सुख ' मंचित किया । सुप्रसिद्ध कहानीकार शैलेश मटियानी की कहानी पर आधारित इस नाटक का निर्देशन हरीश पांडे ने किया । सह - निर्देशक रोहित मलकानी थे । ' अस्तित्व ' नाट्य संस्था पुराने और मजे हुये रंगकर्मियों की टीम है । शैलेश मटियानी की इस कहानी का नाट्य रूपान्तरण करना जितना कठिन था उतने ही सहज तरीके से इस नाटक के कथानक के बुना गया ।
इस नाट्य महोत्सव में यह पहला नाटक था जिसने बहुत सुंदर सेट बनाकर नाटक को प्रस्तुत किया । नाटक में पात्रों का अभिनय इसलिये भी प्रभावी था क्योंकि इसमें शामिल सभी रंगकर्मी लंबे समय से उत्तराखंडी और हिन्दी रंगमंच के साथ जुड़े हैं । यह नाटक तीन पात्रों के इर्द - गिर्द है । जिसमें एक अपाहिज , एक सूरदास की एक आंख से कमजोर महिला से त्रिकोणीय प्रेम प्रसंग है । ये तीनों अल्मोड़ा के चैराहे पर भीख मांगते हैं । प्रेम और मानवीय संवेदनाओं से भरी यह कहानी जीवन दर्शन का भी एक दस्तावेज है ।
कई लोगों के दुख किस प्रकार एक सुख में तब्दील हो सकते हैं इसका यह नाटक उदाहरण है । प्रस्तुतीकरण और नाटक के सभी पक्षों के साथ इस नाटक ने न्याय किया । प्रतिध्वनि कुमाऊं नाट्य महोत्सव के दूसरे दिन का दूसरा नाटक ' प्रतिध्वनि ' था । यह नाटक ' भोर सोसाइटी ' रामनगर ने मंचित किया । इसके लेखक मथुरादत्त मठपाल थे । नाटक निर्देशन किया था संजय रिखाड़ी ने । ' प्रतिध्वनि ' नाटक महिला सशक्तीकरण के नारों और हकीकत को बताता है । ' प्रतिध्वनि ' की कहानी में नारी सशक्तीकरण के लिये गांव में चेतना जगाने के लिये शहर की लड़की काम कर रही है । गांव में पर्यावरण की अलख जगाने वाली गौरा देवी पर नाटक मंचित होना है ।
इसी की तैयारी में गांव के लोग लगे हैं । गौरा देवी का किरदार निभाने वाली महिला का पति शराबी है । वह उसे रोज घर में प्रताड़ित करता है । गांव के प्रधान और सयाने भी महिला सशक्तीकरण की बात तो खूब करते हैं , लेकिन हकीकत में सब इससे कोसों दूर हैं । रोज की प्रताड़ना से तंग आकर एक दिन गौरा का किरदार निभा रही महिला मंचीय और हकीकत के सशक्तीकरण के नारे से क्षुब्ध होकर नाटक से बाहर आने का फैसला करती है । शहर से आई लड़की उसे समझाती है और पुरुष समाज से लड़ने की बात कहती है , लेकिन सारे गांव के लोग इन दोनों के खिलाफ हो जाते हैं । इस प्रकार समाज में महिला सशक्तीकरण की हकीकत को इस नाटक ने बखूबी उकेरा ।
अभिनय , प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से यह नाटक अच्छा था। इसमें दो कहानियां साथ चलती हैं। एक मंच की गौरा देवी और एक हकीकत से जूझती महिला।
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