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श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर उत्तराखंड

श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर उत्तराखंड

श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच में स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों चार धामों में से एक है, यह एक बहुत प्राचीन मंदिर है।
ऋषिकेश से यह 214 किलोमीटर की दुरी पर उत्तर दिशा में स्थित है।

बद्रीनाथ मंदिर



श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर उत्तराखंड में जो प्रतिमा है वह भगवान विष्णु जी के एक रूप में  श्री "बद्रीनारायण" की है।

श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर की बनावट-

श्री बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी से लगभग 50 मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर देखता हुआ है, मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं:
गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप।



बद्रीनाथ मन्दिर का मुख पत्थर से बना हुआ है और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं, चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। 
यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है, इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। अंदर प्रवेश करते ही मंडप दिखता है, एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है।

इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु विशेष पूजाएँ तथा आरती आदि करते हैं। सभा मंडप में ही मन्दिर के धर्माधिकारी, नायब रावल एवं वेदपाठी विद्वानों के बैठने का स्थान है, गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है, और लगभग 15 मीटर लंबी है। छत के शीर्ष पर एक छोटा कपोला भी है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।

गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की 1 मीटर लम्बी शालीग्राम से निर्मित काले रंग की मूर्ति है, जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं- दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं।

मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां भी हैं।

मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें माता लक्ष्मी, गरुड़ देवता (नारायण के वाहन), और नवदुर्गा (नौ अलग-अलग रूपों में दुर्गा माँ) की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नरसिंह और संत आदि शंकराचार्य, नर और नारायण, वेदान्त देशिक, रामानुजाचार्य और पांडुकेश्वर क्षेत्र के एक स्थानीय लोकदेवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं, बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं।

बद्रीनाथ मंदिर को “धरती का वैकुण्ठ” भी कहा जाता है। बद्रीनाथ मंदिर में वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

बद्रीनाथ के अन्य धार्मिक स्थल-

1. अलकनंदा के तट पर स्थित अद्भुत गर्म झरना जिसे ‘तप्त कुंड’ कहा जाता है।


2. एक समतल चबूतरा जिसे ‘ब्रह्म कपाल’ कहा जाता है।

3. पौराणिक कथाओं में उल्लेखित एक ‘सांप’ शिला है।

4. शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड ‘शेषनेत्र’ है।

5. भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं- ‘चरणपादुका’ ।

6. बद्रीनाथ से नजर आने वाला बर्फ़ से ढका ऊंचा शिखर नीलकंठ, जो ‘गढ़वाल क्वीन’ के नाम से जाना जाता है।



श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर का निर्माण कब और कैसे हुआ-

बद्रीनाथ मंदिर के सातवीं-नवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर के नाम पर ही इसके अगल-बगल बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य गढ़वाल क्षेत्र में, समुद्र तल से 3,133 मीटर (10,279 फ़ीट) की ऊँचाई पर स्थित है।


जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की बर्फ़बारी मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थानों में से एक है।

बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता भगवान विष्णु जी के एक रूप श्री "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी 1 मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि गुरु शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था।

इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा भगवान विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। यद्यपि, यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, परन्तु यहाँ "रावल" कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं।

विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर जहाँ ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह भगवान विष्णु को समर्पित 108 दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से भी पुकारते हैं।

भगवान विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – 
योगध्यान-बद्री
भविष्य-बद्री
वृद्ध-बद्री
आदि बद्री
इन सभी को एक साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है।

श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर का नामाकरण कैसे हुआ-

हिमालय में स्थित श्री बद्रीनाथ मंदिर क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग-अलग नामों से प्रचलित रहा है।स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से उल्लेखित किया गया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था।

त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को "योग सिद्ध", और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे "मणिभद्र आश्रम" या "विशाला तीर्थ" कहा गया है।

कलियुग में इस धाम को "बद्रिकाश्रम" अथवा
"बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। इस स्थान का यह नाम यहाँ बहुतायत में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था।
इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है।

बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है -
मुनि नारद एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा तो चकित नारद ने जब भगवान विष्णु से इसके बारे में पूछा तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को की ओर चल दिए और बद्रीनाथ जाकर तपस्या करने लगे।

जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा जिससे भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं।

माता लक्ष्मी जी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मी जी बद्री के वृक्ष के रूप में हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी जी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ- बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।

श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर की कहानी-

हिंदू शास्‍त्रों के मुताबिक एक बार भगवान विष्‍णु काफी लंबे समय से शेषनाग की शैया पर विश्राम कर रहे थे। ऐसे में उधर से गुजरते हुए नारद जी ने उन्‍हें जगा दिया। उसके बाद नारद जी उन्‍हें प्रणाम करते हुए बोले कि प्रभु आप लंबे समय से विश्राम कर रहे हैं। इससे लोगों के बीच आपका उदाहरण आलस होने के लिए दिया जाने लगा है यह बात ठीक नहीं है।


नारद जी की बातें सुनकर भगवान विष्‍णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने तुरंत शेषनाग की शैया को छोड़ दिया और तपस्‍या के लिए एक शांत स्‍थान ढूंढने निकल पड़े। इस प्रयास में वे हिमालय की ओर चल पड़े तब उनकी दृष्‍टि पहाड़ों पर बने बद्रीनाथ पर पड़ी। विष्‍णु जी को लगा कि यह तपस्‍या के लिए उच्च स्‍थान साबित हो सकता है, जब भगवान विष्‍णु जी वहां पहुंचे तो देखा कि वहां पर एक कुटिया में भगवान शिव और माता पार्वती विराजमान थे।

अब भगवान विष्‍णु जी सोच में पड़ गए कि अगर वह इस स्‍थान को तपस्‍या के लिए चुनते हैं तो भगवान शिव क्रोधित हो जाएंगे। इसलिए उन्‍होंने उस स्‍थान को ग्रहण करने का एक उपाय सोचा और एक शिशु का अवतार लिया और बद्रीनाथ के दरवाजे पर रोने लगे। बच्‍चे के रोने की आवाज सुनकर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो गया और वह उस बालक को गोद में उठाने के लिए बढ़ने लगीं। शिव जी ने उन्‍हें मना भी किया कि वह इस शिशु को गोद न लें लेकिन वह नहीं मानी। वह शिव जी से कहने लगी कि आप कितने निर्दयी हैं और एक बच्‍चे को कैसे रोता हुए देख सकते हैं।

इसके बाद पार्वती जी ने उस बच्‍चे को गोद में उठा लिया और उसे लेकर घर के अंदर आ गईं। उन्‍होंने शिशु को दूध पिलाया और उसे चुप कराया। बच्‍चे को नींद आने लगी तो पार्वती जी ने उसे घर में सुला दिया। इसके बाद वे दोनों पास के एक कुंड में स्‍नान करने के लिए चले गए।

भगवान शिव और माता पार्वती जब वापस आए तो देखा कि कुटिया का दरवाजा अंदर से बंद था। पार्वती जी उस बच्‍चे को जगाने की कोशिश करने लगी पर द्वार नहीं खुला। तब शिव जी ने कहा कि अब उनके पास दो ही विकल्‍प है या तो यहां कि हर चीज को वो जला दें या फिर कहीं और चले जाएं।

शिव जी ने पार्वती जी से यह भी कहा कि वह इस भवन को जला नहीं सकते हैं क्‍योंकि यह शिशु उन्‍हें बहुत पसंद था और प्‍यार से उसे अंदर सुलाया था। इसके बाद शिव और पार्वती उस स्‍थान से चल पड़े और केदारनाथ पहुंचे और वहां पर उन्‍होंने अपना स्‍थान बनाया। जबकी वह स्‍थान तब से बद्रीनाथ धाम के रूप भगवान विष्‍णु जी का स्‍थान बन गया।

विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक और अन्य कथा है-
जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र थे नर तथा नारायण जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे।

अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का कुंड मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया। यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी, और नर-नारायण ने ही अगले जन्म में अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था।

महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं।


बद्रीनाथ मंदिर पर्वत श्रेणियों के अनुक्रम के अनुसार, यह स्थान हिमालय की उस श्रेणी पर अवस्थित है जिसे "महान हिमालय" अथवा "मध्य हिमालय" के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र उन कई पर्वतीय जलधाराओं का उद्गम स्थल है जो एक दूसरे में मिलकर अंततः भारत की प्रमुख नदी गंगा का रूप लेती हैं।


इन्हीं पर्वतीय सरिताओं में से एक प्रमुख धारा अलकनन्दा इस घाटी से होकर बहती है जिसमें यह मन्दिर स्थित है। मन्दिर और शहर अलकनन्दा नदी और इसकी सहायिका ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं। मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर इसके पश्चिम में स्थित है और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है।

जिस घाटी में यह संगम होता है, मन्दिर के ठीक सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की ओर नीलकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है। इसके पश्चिम में 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 7,138 मीटर ऊँचा बद्रीनाथ शिखर स्थित है।

बद्रीनाथ मन्दिर के ठीक नीचे तप्त कुण्ड नामक गर्म चश्मा है। सल्फर युक्त पानी के इस चश्में को औषधीय युक्त माना जाता है, कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस गर्म कुंड में स्नान करना आवश्यक मानते हैं।

इन कुंड में सालाना तापमान 55 डिग्री सेल्सियस होता है, जबकि बाहरी तापमान आमतौर पर पूरे वर्ष 17 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे रहता है।
मन्दिर में पानी के दो तालाब भी हैं, जिन्हें क्रमशः नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है।


श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर में आवागमन का रास्ता-

बद्रीनाथ मंदिर जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से ये तीनों रास्ते कर्णप्रयाग में मिल जाते है।

राष्ट्रीय राजमार्ग बद्रीनाथ से होकर गुजरता है। यह राजमार्ग पंजाब के फाजिल्का नगर से शुरू होकर भटिण्डा और पटियाला से होता हुआ हरियाणा के पंचकुला, हिमाचल प्रदेश के पाओंटा साहिब और उत्तराखण्ड के देहरादून, ऋषिकेश, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, चमोली तथा जोशीमठ इत्यादि नगरों से होते हुए बद्रीनाथ पहुँचता है, और यहां से आगे बढ़ते हुए भारत-चीन सीमा पर स्थित ग्राम माणा में पहुंचकर समाप्त हो जाता है।

केदारनाथ की ओर से भी गौरीकुंड से गुप्तकाशी, चोक्ता (चोटवा), गोपेश्वर और जोशीमठ होते हुए सड़क मार्ग को लगभग 221 किमी की दूरी तय कर बद्रीनाथ मन्दिर तक पहुंचा जा सकता है।

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, परन्तु अब बेहतर सड़क मार्ग बन जाने के कारण हफ्ते-भर से भी कम समय में ही यह यात्रा हो जाती है। जोशीमठ से बद्रीनाथ की दूरी लगभग 50 किलोमीटर है। यहाँ से 12 किलोमीटर की दूरी पर विष्णुप्रयाग है।
जहाँ अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम होता है। विष्णुप्रयाग से लगभग 10 किमी दूर गोविन्दघाट है, जहाँ से एक रास्ता सीधा बद्रीनाथ को जाता है, और दूसरा घांघरिया होते हुए फूलों की घाटी एवं हेमकुंट साहिब को जाता है। गोविन्दघाट से मात्र 3 किमी की दूरी पर पांडुकेश्वर है। पांडुकेश्वर से 10 किमी आगे हनुमानचट्टी, और वहां से 11 किमी की दूरी पर स्थित है बद्रीनाथ धाम।

बद्रीनाथ मंदिर जाने के लिये परमिट की जरुरत पडती है, जो कि जोशीमठ के एसडीएम द्वारा बनाया जाता है। इसे जोशीमठ से बद्रीनाथ के बीच में ट्रैफिक कंट्रोल के लिए लागू किया जाता है। रास्ते में ट्रैफिक बहुत होने के कारण से बेरियर लगाए जाते है और इस परमिट के माध्यम से ही पुलिस ट्रैफिक कंट्रोल करती है।

मन्दिर प्रशासन ने मन्दिर के आगंतुकों के लिए एक टोकन प्रणाली की शुरुआत की टोकन स्टैंड में लगे तीन स्टालों से यात्रा के समय को इंगित करने वाले टोकन प्रदान किए जाते हैं। प्रत्येक भक्त को गर्भगृह का दौरा करने के लिए 10 से 20 सेकंड आवंटित किया जाता है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए पहचान का प्रमाण साथ होना अनिवार्य है।

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